कोरोना वायरस भेदभाव नहीं करता है। वो अमीर-गरीब नहीं देखता है, अपना-पराया नहीं समझता है। वो राजनेताओं और मज़दूर में भी फ़र्क़ नहीं करता हैं। वो डॉक्टर, पुलिस, मीडियाकर्मी और आम आदमी को नहीं पहचानता है। यही वजह है शायद कि गरीब आदमी कोरोना से नहीं डरता है। वो भूख से घबराता है। मुसीबत में घर को याद करता है। घर पहुँचने के लिए पैदल ही निकल पड़ता है। इन लोगों का मनोविज्ञान क्या कहता है, ये समझना ज़रूरी है।
जिस दिन पहली बार देश में lockdown का आदेश आया, उसी पल से ग़रीब, मज़दूर पैदल 200km से लेकर 2000km तक पैदल निकल पड़े। दिल्ली के आनंद विहार से लेकर मुंबई के बांद्रा तक की तस्वीरें हमने देखी हैं, जो इस बात का सबूत है कि कोरोना काल में मज़दूरों को भूख, दो वक्त का खाना, परिवार, गाँव, अपनी जान से ज़्यादा ज़रूरी लगा।

इन दिनों हालत ये है कि कहीं भी कोई झूठ ही बोल दे कि यहाँ खाना मिलने वाला है, तो लोगों की भीड़ उमड़ आती है। ये एक दूसरे से चिपक कर खड़े होते हैं क्योंकि डरते हैं कि अगर social distancing का पालन किया तो कोई और बीच में आकर खड़ा हो जाएगा और खाना थोड़ी और दूर हो जाएगा। इतने भिखारी तो हमारे देश में नहीं हैं, फिर ये कौन हैं? ये वो हैं जो किसी फ़िल्मी हीरो की तरह, कल तक मेहनत की कमाई खाने का दावा करते थे, हमेशा चौड़ा सीना और सिर ऊँचा करके चलते हैं, आज भूख ने इन्हें हाथ फैलाने पर मजबूर कर दिया है। दो वक्त के खाने के लिए घंटों लाइन लगाने का आदेश दे दिया है। और ये मजबूर, लाचार, वक्त और हालात के मारे इन आदेशों का बिना शर्त पालन कर रहे हैं।
लोकसभा में दिए गए आँकड़े के मुताबिक़ 2018 में भारत में क़रीब चार लाख तेरह हज़ार भिखारी थे। ये आँकड़ा अब बढ़कर क़रीब पाँच लाख हो गया है… 2018 के सरकारी आँकड़ों के मुताबिक़ सबसे ज़्यादा 81,224 भिखारी पश्चिम बंगाल में हैं। दूसरे नंबर पर उत्तर प्रदेश है जहां 65,835 भिखारी हैं, फिर आन्ध्र प्रदेश में 30,218 और बिहार में 29,723 भिखारी हैं। वहीं केन्द्र शासित प्रदेशों में भिखारियों की संख्या कम है। लक्षद्वीप में सबसे कम, सिर्फ़ 2 भिखारी हैं। दादरा और नगर हवेली में 19, दमन और दियू में 22 और अंडमान और निकोबार द्वीपों में 56 भिखारी है। हमें ये नहीं भूलना चाहिए कि ये भिखारी, हम लोगों से मिलने वाली दया पर निर्भर करते हैं। जब लोग ही सड़कों पर नहीं हैं तो उन्हें ये दया कैसे मिलेगी ? लॉकडाउन में ये भिखारी ख़ुद को कोरोना वायरस से कैसे और कहां छिपा रहे होंगे?
ये ऐसा काल है जब पेट भरने के लिए कोई सड़क पर फैला दूध बटोर रहा है, तो कोई सूखी रोटी पानी से धो कर खा रहा है। कोई अपने बच्चे को भूख से बिलखता देख आँखें नम किए बेबस बैठा है, तो कोई थोड़े में ही मिल बाँटकर खाने की मिसाल क़ायम कर रहा है। कुछ लोग भूख का हवाला दे रहे हैं, तो कुछ भूख से लड़कर एक-एक दिन ज़िंदगी को चुनौती दे रहे हैं। इनमें वो लोग भी हैं जिनके पास अपनी छत नहीं है। कुछ किराए के मकान में रहते हैं तो अब किराए के पैसे नहीं है। कोई social distancing के दौर में एक ही छत के नीचे भीड़ में रह रहने को मजबूर है तो कोई दो वक़्त की रोटी के लिए घर का सामान बेच रहा है।


इस वक़्त देश में चालीस लाख लोग बेघर हैं। ये वो लोग हैं जो रोज़ कुआँ खोदते हैं और पानी पीते हैं। इनके पास घर नहीं हैं और वो घर में किराने का सामान ख़रीदकर नहीं रखते हैं। ऐसे लोग इस लॉकडाउन के समय में क्या करेंगे या क्या कर रहे होंगे? वहीं सड़क से कूड़ा इकट्ठा करने वालों पर भी इस लॉकडाउन की मार पड़ी होगी। हमारे देश में सड़क से कूड़ा इकट्ठा करने वालों की संख्या पन्द्रह लाख से चार लाख के बीच है। दिल्ली में ही पाँच लाख से ज़्यादा कूड़ा इकट्ठा करने वाले हैं। ये लोग तो कूड़ा बिनकर, छांटकर, बेचकर, दो पैसे कमाते हैं और अपना पेट पालते हैं। अब वो कूड़ा इकट्ठा करेंगे भी तो बेचेंगे किसे ?

एक अनुमान के मुताबिक हमारे देश में बीस लाख रिक्शा हैं, 15 लाख ई-रिक्शा हैं और करीब सत्तर लाख ऑटो रिक्शा हैं… ये हमें घर के पास वाले चौराहे पर, मेट्रो स्टेशन पर, स्कूल, कॉलेज, अस्पताल, मॉल के बाहर, हर जगह रिक्शा, ई-रिक्शा, ऑटो रिक्शा मिल ही जाते हैं। ये वो हैं जो हमारे देश में मध्य वर्ग और निम्न मध्य वर्ग के लिए एक जगह से दूसरी जगह जाने का साधन हैं। गर्मी, सर्दी, धूप, बरसात की फ़िक्र किए बिना ये लोग सवारी का इंतज़ार करते हैं कि कोई सवारी मिले तो इनके घर में चूल्हा जल सके।
घर के थोड़ा और पास आएं तो दूध वाला, अख़बार वाला, गाड़ी साफ़ करने वाला, कूड़े वाला, चौकीदार, माली, ड्राइवर जैसे तमाम लोग हमारे लिए रोज़ ही काम करते हैं। घर के अंदर सफ़ाई वाली, बर्तन धोने वाली, खाना बनाने वाली यानी काम वाली होती है। इन सब को हमने फ़िलहाल काम पर आने से मना कर दिया है।
दिल्ली श्रम संगठन द्वारा उपलब्ध कराए गए आंकड़ों के अनुसार, भारत में पाँच करोड़ से अधिक घरेलू कामगार हैं, जिनमें से अधिकांश महिलाएँ हैं। इनमें से एक मेरी नौकरानी भी है… वो ऐसे इलाके में रहती है, जहाँ वो चाहकर भी social distancing का पालन नहीं कर सकती है। ये लोग छोटी जगहों पर रहते हैं जहाँ पानी और शौचालय की बुनियादी ज़रूरतों के लिए उन्हें समुदाय में जाना ही पड़ता है। ऊपर से हम अब इनसे काम भी नहीं करा रहे हैं। इन्हें बिन माँगे लंबी छुट्टी मिल गई है। एक महीने की तनख़्वाह तो हम में से बहुत सारे लोगों ने इन्हें बिना काम किए ही शायद दे दी होगी। लेकिन अगर लॉकडाउन की स्थिति बनी रही तो हम कब तक इन लोगों से बिना काम कराए, इन्हें पैसे दे पाएँगे।
मेरा दूधवाला पास के शहर में रहता है और दूध बेचने के लिए लोकल ट्रेन से आता था। वो आवश्यक सेवाओं की श्रेणी में आता है और वह दूध बेचने के लिए बाहर निकल सकता है, लेकिन उसके पास आने-जाने का कोई साधन नहीं है। तो जब वह दूध नहीं बेचेगा तो वो अपना और अपने परिवार का पालन पोषण कैसे करेगा ?
इनमें से कोई भी या कुछ लोग भी अगर भूख से मर जाएँ, तो क्या होगा ? धरती का बोझ कम होगा या इन्हें हम शहीद का दर्जा देंगे ?
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कोरोना वायरस भेदभाव नहीं करता है। वो अमीर-गरीब नहीं देखता है, अपना-पराया नहीं समझता है। वो राजनेताओं और मज़दूर में भी फ़र्क़ नहीं करता हैं। वो डॉक्टर, पुलिस, मीडियाकर्मी और आम आदमी को नहीं पहचानता है। यही वजह है शायद कि गरीब आदमी कोरोना से नहीं डरता है। वो भूख से घबराता है। मुसीबत में घर को याद करता है। घर पहुँचने के लिए पैदल ही निकल पड़ता है। इन लोगों का मनोविज्ञान क्या कहता है, ये समझना ज़रूरी है।
जिस दिन पहली बार देश में lockdown का आदेश आया, उसी पल से ग़रीब, मज़दूर पैदल 200km से लेकर 2000km तक पैदल निकल पड़े। दिल्ली के आनंद विहार से लेकर मुंबई के बांद्रा तक की तस्वीरें हमने देखी हैं, जो इस बात का सबूत है कि कोरोना काल में मज़दूरों को भूख, दो वक्त का खाना, परिवार, गाँव, अपनी जान से ज़्यादा ज़रूरी लगा।
इन दिनों हालत ये है कि कहीं भी कोई झूठ ही बोल दे कि यहाँ खाना मिलने वाला है, तो लोगों की भीड़ उमड़ आती है। ये एक दूसरे से चिपक कर खड़े होते हैं क्योंकि डरते हैं कि अगर social distancing का पालन किया तो कोई और बीच में आकर खड़ा हो जाएगा और खाना थोड़ी और दूर हो जाएगा। इतने भिखारी तो हमारे देश में नहीं हैं, फिर ये कौन हैं? ये वो हैं जो किसी फ़िल्मी हीरो की तरह, कल तक मेहनत की कमाई खाने का दावा करते थे, हमेशा चौड़ा सीना और सिर ऊँचा करके चलते हैं, आज भूख ने इन्हें हाथ फैलाने पर मजबूर कर दिया है। दो वक्त के खाने के लिए घंटों लाइन लगाने का आदेश दे दिया है। और ये मजबूर, लाचार, वक्त और हालात के मारे इन आदेशों का बिना शर्त पालन कर रहे हैं।
लोकसभा में दिए गए आँकड़े के मुताबिक़ 2018 में भारत में क़रीब चार लाख तेरह हज़ार भिखारी थे। ये आँकड़ा अब बढ़कर क़रीब पाँच लाख हो गया है… 2018 के सरकारी आँकड़ों के मुताबिक़ सबसे ज़्यादा 81,224 भिखारी पश्चिम बंगाल में हैं। दूसरे नंबर पर उत्तर प्रदेश है जहां 65,835 भिखारी हैं, फिर आन्ध्र प्रदेश में 30,218 और बिहार में 29,723 भिखारी हैं। वहीं केन्द्र शासित प्रदेशों में भिखारियों की संख्या कम है। लक्षद्वीप में सबसे कम, सिर्फ़ 2 भिखारी हैं। दादरा और नगर हवेली में 19, दमन और दियू में 22 और अंडमान और निकोबार द्वीपों में 56 भिखारी है। हमें ये नहीं भूलना चाहिए कि ये भिखारी, हम लोगों से मिलने वाली दया पर निर्भर करते हैं। जब लोग ही सड़कों पर नहीं हैं तो उन्हें ये दया कैसे मिलेगी ? लॉकडाउन में ये भिखारी ख़ुद को कोरोना वायरस से कैसे और कहां छिपा रहे होंगे?
ये ऐसा काल है जब पेट भरने के लिए कोई सड़क पर फैला दूध बटोर रहा है, तो कोई सूखी रोटी पानी से धो कर खा रहा है। कोई अपने बच्चे को भूख से बिलखता देख आँखें नम किए बेबस बैठा है, तो कोई थोड़े में ही मिल बाँटकर खाने की मिसाल क़ायम कर रहा है। कुछ लोग भूख का हवाला दे रहे हैं, तो कुछ भूख से लड़कर एक-एक दिन ज़िंदगी को चुनौती दे रहे हैं। इनमें वो लोग भी हैं जिनके पास अपनी छत नहीं है। कुछ किराए के मकान में रहते हैं तो अब किराए के पैसे नहीं है। कोई social distancing के दौर में एक ही छत के नीचे भीड़ में रह रहने को मजबूर है तो कोई दो वक़्त की रोटी के लिए घर का सामान बेच रहा है।
इस वक़्त देश में चालीस लाख लोग बेघर हैं। ये वो लोग हैं जो रोज़ कुआँ खोदते हैं और पानी पीते हैं। इनके पास घर नहीं हैं और वो घर में किराने का सामान ख़रीदकर नहीं रखते हैं। ऐसे लोग इस लॉकडाउन के समय में क्या करेंगे या क्या कर रहे होंगे? वहीं सड़क से कूड़ा इकट्ठा करने वालों पर भी इस लॉकडाउन की मार पड़ी होगी। हमारे देश में सड़क से कूड़ा इकट्ठा करने वालों की संख्या पन्द्रह लाख से चार लाख के बीच है। दिल्ली में ही पाँच लाख से ज़्यादा कूड़ा इकट्ठा करने वाले हैं। ये लोग तो कूड़ा बिनकर, छांटकर, बेचकर, दो पैसे कमाते हैं और अपना पेट पालते हैं। अब वो कूड़ा इकट्ठा करेंगे भी तो बेचेंगे किसे ?

एक अनुमान के मुताबिक हमारे देश में बीस लाख रिक्शा हैं, 15 लाख ई-रिक्शा हैं और करीब सत्तर लाख ऑटो रिक्शा हैं… ये हमें घर के पास वाले चौराहे पर, मेट्रो स्टेशन पर, स्कूल, कॉलेज, अस्पताल, मॉल के बाहर, हर जगह रिक्शा, ई-रिक्शा, ऑटो रिक्शा मिल ही जाते हैं। ये वो हैं जो हमारे देश में मध्य वर्ग और निम्न मध्य वर्ग के लिए एक जगह से दूसरी जगह जाने का साधन हैं। गर्मी, सर्दी, धूप, बरसात की फ़िक्र किए बिना ये लोग सवारी का इंतज़ार करते हैं कि कोई सवारी मिले तो इनके घर में चूल्हा जल सके।
घर के थोड़ा और पास आएं तो दूध वाला, अख़बार वाला, गाड़ी साफ़ करने वाला, कूड़े वाला, चौकीदार, माली, ड्राइवर जैसे तमाम लोग हमारे लिए रोज़ ही काम करते हैं। घर के अंदर सफ़ाई वाली, बर्तन धोने वाली, खाना बनाने वाली यानी काम वाली होती है। इन सब को हमने फ़िलहाल काम पर आने से मना कर दिया है।
दिल्ली श्रम संगठन द्वारा उपलब्ध कराए गए आंकड़ों के अनुसार, भारत में पाँच करोड़ से अधिक घरेलू कामगार हैं, जिनमें से अधिकांश महिलाएँ हैं। इनमें से एक मेरी नौकरानी भी है… वो ऐसे इलाके में रहती है, जहाँ वो चाहकर भी social distancing का पालन नहीं कर सकती है। ये लोग छोटी जगहों पर रहते हैं जहाँ पानी और शौचालय की बुनियादी ज़रूरतों के लिए उन्हें समुदाय में जाना ही पड़ता है। ऊपर से हम अब इनसे काम भी नहीं करा रहे हैं। इन्हें बिन माँगे लंबी छुट्टी मिल गई है। एक महीने की तनख़्वाह तो हम में से बहुत सारे लोगों ने इन्हें बिना काम किए ही शायद दे दी होगी। लेकिन अगर लॉकडाउन की स्थिति बनी रही तो हम कब तक इन लोगों से बिना काम कराए, इन्हें पैसे दे पाएँगे।
मेरा दूधवाला पास के शहर में रहता है और दूध बेचने के लिए लोकल ट्रेन से आता था। वो आवश्यक सेवाओं की श्रेणी में आता है और वह दूध बेचने के लिए बाहर निकल सकता है, लेकिन उसके पास आने-जाने का कोई साधन नहीं है। तो जब वह दूध नहीं बेचेगा तो वो अपना और अपने परिवार का पालन पोषण कैसे करेगा ?
इनमें से कोई भी या कुछ लोग भी अगर भूख से मर जाएँ, तो क्या होगा ? धरती का बोझ कम होगा या इन्हें हम शहीद का दर्जा देंगे ?
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